परछायी
परछायी
-अलवीरा हफ़ीज़
ना नाम है, ना पहचान है,
ना कोई घर, ना ईमान है,
जो पति कहे वो मान लो,
जो पिता बोले वो ठान लो।
ना मेरी इच्छा है, ना मेरी सोच,
बस एक ही बार है, शायद मैं हूँ कोई बोझ,
हर दिन बस मेरी उड़ान पर ताले लगते हैं,
मेरी हर ख्वाईश लोगों को रोड़े लगते हैं।
चाहे जितना काम कर लूँ, किसी को वो दिखता नहीं,
पर छोटी-सी गलती कर दूँ, तो उसका दाग मिटता नहीं,
बाहर चली जाऊँ तो सौ सवाल,
देर हो तो चारित्र पर बवाल।
कभी मैनें तो कुछ नहीं कहा उनके देर से आने पर,
थाली सजा कर लायी उनके खट-खटाने पर,
उनके चारित्र पर कभी कीचड़ नहीं उछाली,
सबके दुख दिखें पर मैं रो दूँ तो रूदाली।
कभी भी अकेला नहीं छोड़ा, चाहे गहरा अन्धेरा हो,
शमा मैनें जलायी, ताकी हल्का ही सही पर सवेरा हो,
उनके मुख से अपनी प्रशंसा कभी नहीं सुनी,
मन ही मन मैनें हम दोनों की कहानियाँ बुनी।
काश की वो कभी दो मीठे बोल कह देते,
काश की कभी तो तकरार रहने देते,
पर शायद मैं ज्यादा मांग रही हूँ,
इस बात को अब मै धीरे-धीरे जान रही हूँ।
***************
Well said👌👌
ReplyDeleteThank you so much
Delete❤️phenomenal
ReplyDeleteThank u
DeleteVery nice ♥️
ReplyDeletethank u so much
Delete